इतिहास और राजनीति >> मेरा भारत मेरा भारतखुशवंत सिंह
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प्रस्तुत पुस्तक में भारत के विस्तृत इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाली गई है...
Mera Bharat - A hindi Book by - Khushwant Singh मेरा भारत - खुशवंत सिंह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह की इस प्रामाणिक पुस्तक में उन्होंने भारत को अनेक दृष्टिकोणों से, इतिहास, संस्कृति, जन-जीवन, राजनीति आदि से देखा परखा है। यह पुस्तक पहले अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई और इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। खुशवंत सिंह प्रतिष्ठित सम्पादक-आलोचक तो हैं ही, साथ ही इतिहासकार भी हैं। इस पुस्तक में उन्होंने एक इतिहासकार की दृष्टि से भी भारत के विस्तृत इतिहास पर एक विहंगम दृष्टि डाली हैं। पढ़ने में अत्यन्त रोचक, प्रवाहपूर्ण और विचारोत्तेजक।
अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. भगवतीशरण मिश्र ने।
अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. भगवतीशरण मिश्र ने।
आमुख
मैंने हिंदुस्तान के सम्बन्ध में, प्रिंसटन स्वामोर तथा हवाई के छात्रों को भारतीय इतिहास और धर्मों के अध्यापन के फलस्वरूप उससे अधिक जाना, जितना मैं किसी भारतीय विश्वविद्यालय के भाषणों को सुनकर जान सकता था। मैं एक सामान्य छात्र था और अपने प्राध्यापकों के शिक्षण से बहुत कम ग्रहण कर सका। जब परिस्थितियाँ उलट गईं और छात्रों के साथ कक्षा में बैठने के स्थान पर मुझे भाषण-कर्ता के स्थान से उनका एकाकी का सामना करना पड़ा तब मुझे पुस्तकालय की पुस्तकों में डूबकर जितनी सूचनाएँ मैं एकत्रित कर सकता था
करना पड़ा; उन्हें प्रस्तुति-क्रम से व्यवस्थिति करना पड़ा और स्वयं को उन प्रश्नों के उत्तर देने योग्य बनाना पड़ा जो मुझसे पूछे जा सकते थे। यह अत्यन्त ही चुनौतीपूर्ण, थकान-भरा कार्य सिद्ध हुआ। अमेरिकन विश्वविद्यालयों में मेरे प्राध्यापन-काल में ‘सेमिनार’ पद्धति जो आई ही थी
उसने मुझे और अध्ययन करने तथा ज्ञान की जिज्ञासा और अदम्य इच्छा से भरे युवा एवं प्रतिभावान मस्तिष्कों से आमना-सामना हेतु प्रस्तुत होने को बाध्य किया। मैं, रब्बी हिलेल के इस मत से सहमत हो सकता हूँ, ‘‘मैंने अपने शिष्यों से जितना कुछ सीखा, अपने सहकर्मियों से उनसे अधिक सीखा पर अपने शिष्यों से जितना सीखा वह उन सभी से अधिक था।’’
सौभाग्यवश मैंने अपने द्वारा तैयार किए गए व्याख्यानों की टिप्पणियाँ तैयार कर ली थीं। कुछ वर्षों बाद जब मैंने मुंबई में ‘दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ के सम्पादकत्व ग्रहण करने के लिए अध्यापन-कार्य को तिलांजलि दे दी तो मेरी इन टिप्पणियों को अपनी पत्रिका और फिर ‘दी न्यूयार्क टाइम्स’ जिसमें लिखने हेतु मुझसे अनुरोध किया गया, के लिए आलेखों के लिखने में बहुत सहायक पाया।
चूँकि ये आलेख विद्वान श्रोताओं के लिए नहीं होकर समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के लिए थे, अतः मुझे यह सीखना पड़ा कि गली-कूचे के आम आदमी के साथ संवाद कैसे स्थापित किया जा सकता था। उनके हिन्दुत्व की व्याख्या कैसे की जा सकती थी जो वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों और गीता के अध्ययन में रुचि नहीं रखते थे। इस्लाम को, उन गैर-मुसलमानो को कैसे व्याख्यायित किया जा सकता था, जिनसे कभी भी पैगंबर मोहम्मद की जीवनी, कुरान एवं ‘हदीस’ के अध्ययन की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। ऐसी ही और बातें थीं।
साथ ही मैंने अनुभव किया कि कुछ सामान्य बातें थीं जैसे जातीय नाम, रीति-रिवाज, विशेष वेश-भूषा आदि जो धार्मिक सम्प्रदायों को एक दूसरे से पृथक् करती थीं। उदाहरण हेतु ऐय्यर जो शैव हैं क्यों अपने ललाट पर एक विशेष जाति-तिलक लगाते हैं जो वैष्णव आयंगरों के तिलक से भिन्न होते हैं; क्यों सभी सिख, सिंह हैं,
पर सभी सिंह सिख नहीं हैं, क्यों सभी सिख पगड़ी बाँधते हैं और यदि उनके इस शिरो-वस्त्र का रंग कुछ रेखांकित करता है तो वह क्या है; क्यों कुछ जैन नितान्त नग्न रहते हैं तो दूसरे क्यों नहीं; क्यों कुछ कट्टर शाकाहारी हैं तो कुछ सब्जियों जैसे आलू, प्याज और लहसुन जो जमीन के अंदर पैदा होते हैं, को हाथ भी नहीं लगाते ?
अपने कॉलेज-व्याख्यान के अनेक बार अध्ययन तथा उनमें कुछ जोड़ने और उनका अध्ययन करने के पश्चात् मैंने उन्हें एक पुस्तक का रुप देना चाहा; भारत के एक परिचय के रूप में—इसके विविध रंगी व्यक्तियों, इसके संगठित इतिहास, इसके विभिन्न धर्मों, इसकी राजनीति और इसके साहित्य के परिचय के रूप में। विशेषज्ञ इस वृहत् विस्तार को मान्यता नहीं भी दे सकते हैं। पर यह पुस्तक उनके लिए नहीं बल्कि उस बुद्धिमान जिज्ञासु सामान्य आदमी के लिए है जो भारत के सम्बन्ध में जानना चाहता है या जिसके पास ज्ञान-पूर्ण ग्रंथों के अंबार के अध्ययन का अवकाश नहीं है।
‘दी व्यू ऑफ़ इंडिया’ नामक प्रथम संकलन बहुत समय से अमुद्रित है। इस नए संस्करण को पर्याप्त संशोधन किया गया है। रेखाचित्रों से सुसज्जित कर पुस्तक को अधिक आकर्षण प्रदान किया गया है। यह ‘इंस्टैंट कॉफ़ी’ का ‘इन्स्टैण्ट’ भारत स्वरूप प्रतीत हो सकता है। पर मैं समझता हूं कि इसमें कुछ अधिक है। यदि यह मेरे पाठक के मस्तिष्क में जिज्ञासा की एक ऐसी चिंगारी भी जगाती है जिसके फलस्वरूप वह भारत-सम्बन्धी अपने अध्ययन तो और आगे बढ़ाना चाहे तो मैं अपना एक सफल प्रयास समझूँगा।
करना पड़ा; उन्हें प्रस्तुति-क्रम से व्यवस्थिति करना पड़ा और स्वयं को उन प्रश्नों के उत्तर देने योग्य बनाना पड़ा जो मुझसे पूछे जा सकते थे। यह अत्यन्त ही चुनौतीपूर्ण, थकान-भरा कार्य सिद्ध हुआ। अमेरिकन विश्वविद्यालयों में मेरे प्राध्यापन-काल में ‘सेमिनार’ पद्धति जो आई ही थी
उसने मुझे और अध्ययन करने तथा ज्ञान की जिज्ञासा और अदम्य इच्छा से भरे युवा एवं प्रतिभावान मस्तिष्कों से आमना-सामना हेतु प्रस्तुत होने को बाध्य किया। मैं, रब्बी हिलेल के इस मत से सहमत हो सकता हूँ, ‘‘मैंने अपने शिष्यों से जितना कुछ सीखा, अपने सहकर्मियों से उनसे अधिक सीखा पर अपने शिष्यों से जितना सीखा वह उन सभी से अधिक था।’’
सौभाग्यवश मैंने अपने द्वारा तैयार किए गए व्याख्यानों की टिप्पणियाँ तैयार कर ली थीं। कुछ वर्षों बाद जब मैंने मुंबई में ‘दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ के सम्पादकत्व ग्रहण करने के लिए अध्यापन-कार्य को तिलांजलि दे दी तो मेरी इन टिप्पणियों को अपनी पत्रिका और फिर ‘दी न्यूयार्क टाइम्स’ जिसमें लिखने हेतु मुझसे अनुरोध किया गया, के लिए आलेखों के लिखने में बहुत सहायक पाया।
चूँकि ये आलेख विद्वान श्रोताओं के लिए नहीं होकर समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के लिए थे, अतः मुझे यह सीखना पड़ा कि गली-कूचे के आम आदमी के साथ संवाद कैसे स्थापित किया जा सकता था। उनके हिन्दुत्व की व्याख्या कैसे की जा सकती थी जो वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों और गीता के अध्ययन में रुचि नहीं रखते थे। इस्लाम को, उन गैर-मुसलमानो को कैसे व्याख्यायित किया जा सकता था, जिनसे कभी भी पैगंबर मोहम्मद की जीवनी, कुरान एवं ‘हदीस’ के अध्ययन की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। ऐसी ही और बातें थीं।
साथ ही मैंने अनुभव किया कि कुछ सामान्य बातें थीं जैसे जातीय नाम, रीति-रिवाज, विशेष वेश-भूषा आदि जो धार्मिक सम्प्रदायों को एक दूसरे से पृथक् करती थीं। उदाहरण हेतु ऐय्यर जो शैव हैं क्यों अपने ललाट पर एक विशेष जाति-तिलक लगाते हैं जो वैष्णव आयंगरों के तिलक से भिन्न होते हैं; क्यों सभी सिख, सिंह हैं,
पर सभी सिंह सिख नहीं हैं, क्यों सभी सिख पगड़ी बाँधते हैं और यदि उनके इस शिरो-वस्त्र का रंग कुछ रेखांकित करता है तो वह क्या है; क्यों कुछ जैन नितान्त नग्न रहते हैं तो दूसरे क्यों नहीं; क्यों कुछ कट्टर शाकाहारी हैं तो कुछ सब्जियों जैसे आलू, प्याज और लहसुन जो जमीन के अंदर पैदा होते हैं, को हाथ भी नहीं लगाते ?
अपने कॉलेज-व्याख्यान के अनेक बार अध्ययन तथा उनमें कुछ जोड़ने और उनका अध्ययन करने के पश्चात् मैंने उन्हें एक पुस्तक का रुप देना चाहा; भारत के एक परिचय के रूप में—इसके विविध रंगी व्यक्तियों, इसके संगठित इतिहास, इसके विभिन्न धर्मों, इसकी राजनीति और इसके साहित्य के परिचय के रूप में। विशेषज्ञ इस वृहत् विस्तार को मान्यता नहीं भी दे सकते हैं। पर यह पुस्तक उनके लिए नहीं बल्कि उस बुद्धिमान जिज्ञासु सामान्य आदमी के लिए है जो भारत के सम्बन्ध में जानना चाहता है या जिसके पास ज्ञान-पूर्ण ग्रंथों के अंबार के अध्ययन का अवकाश नहीं है।
‘दी व्यू ऑफ़ इंडिया’ नामक प्रथम संकलन बहुत समय से अमुद्रित है। इस नए संस्करण को पर्याप्त संशोधन किया गया है। रेखाचित्रों से सुसज्जित कर पुस्तक को अधिक आकर्षण प्रदान किया गया है। यह ‘इंस्टैंट कॉफ़ी’ का ‘इन्स्टैण्ट’ भारत स्वरूप प्रतीत हो सकता है। पर मैं समझता हूं कि इसमें कुछ अधिक है। यदि यह मेरे पाठक के मस्तिष्क में जिज्ञासा की एक ऐसी चिंगारी भी जगाती है जिसके फलस्वरूप वह भारत-सम्बन्धी अपने अध्ययन तो और आगे बढ़ाना चाहे तो मैं अपना एक सफल प्रयास समझूँगा।
खुशवंत सिंह
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भूमि और निवासी
विश्व के मानचित्र पर एक दृष्टि डालें और भारत के आकार को देखें। यह संसार का सातवाँ सर्वाधिक बड़ा देश है तथा चीन के बाद एशिया का सबसे बड़ा देश। 11,27,000 वर्ग मील क्षेत्रफल की यह भूमि उत्तर से दक्षिण तक 2,000 मील है और पूर्व से पश्चिम तक 1,700 मील। इसकी सीमाएँ पाकिस्तान, रूस, चीन, बांग्लादेश, नेपाल और वर्मा से लगती हैं, जिसका 82,000 मील मरुभूमियों, पर्वतों और मौसमी वनों से पटा है। इसके समुद्री किनारे की लम्बाई 3,500 मील है।
भारत के तीन प्रमुख भू-भाग हैं—हिमालय-पर्वत-श्रृंखला, गंगा-सिंध-मैदान तथा दक्षिणी पठार। उत्तर-पश्चिम की पर्वत-श्रृंखलाएँ उधर की सीमाओं का मिर्माण करती हुईं, पाकिस्तान के निर्माण के पूर्व इस उपमहाद्वीप को एक भौगोलिक एकता प्रदान करती थीं। इन पर्वतों का महत्त्व उनकी अभेद्यता में था।
ये पर्वत संसार में सर्वोच्च हैं—माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई 29,028 फीट है। इनमें अधिकांश वर्ष-पर्यंत बर्फ से ढके रहते हैं। हिमालय का अर्थ ही है हिम (बर्फ) का घर (आलय)। गगनचुँबी ऊँचाइयों तथा सदा उपलब्ध बर्फ से अधिक ऐतिहासिक महत्त्व उन दर्रों का था जो हिमालय को पार करने योग्य बनाते थे किसी बाँध के खुले फाटकों की तरह, उन जातियों को अनवरुद्ध मार्ग प्रदान करते थे जो इस पर्वत के उस पार रहती थीं।
बोलान, खुर्रम तथा ख़ैबर के दर्रे उत्तर-पश्चिम में हैं; ऐसे और कई हैं जो भारत को तिब्बत से जोड़ते हैं। ये दर्रे घुमक्कड़ों और गड़ेरियों को ज्ञात थे जो अपनी भेड़-बकरियों के झुंडों को घाटियों में चराते थे, उन व्यापारियों को ज्ञात थे जो अपनी व्यावसायिक वस्तुओं को झुंडों में, उनकी राह लाते थे और निस्संदेह उन आक्रामकों को ज्ञात थे जो इनका उपयोग भारत के समृद्ध मैदानी भागों पर आक्रमण और लूट के लिए करते थे।
भारत का इतिहास इन हिमालयी दर्रों के द्वारा आक्रमणों की उबाऊ और त्रासद पुनरावृत्ति का इतिहास है। आक्रमणों का समय जैसे पूर्णतया तिथि-सूचकों (कैलेंडरों) से निर्धारित था। आक्रामक पतझड़ के ठीक पूर्व अपनी सेनाओं को एकत्रित करते, हिमयान के पूर्व दर्रों को पार कर जाते तथा जाड़े के आरम्भ में जब आसमान नीला रहता, और हवा; अलसी, हरे गेहूं और ईख की गंध से सुगंधित और शीतल रहती।
ये भारतीय मैदानी इलाकों पर टूट पड़ते। आक्रामकों और भारतीयों के बीच अधिकांश लड़ाइयाँ पंजाब में लड़ी गईं और आक्रामक अगर विजयी सिद्ध होते, जो वे अक्सर होते ही थे, तो वे जाड़े के महीनों को लाहौर, करनाल, पानीपत, दिल्ली, मथुरा और आगरा आदि नगरों की सुनियोजित लूट में लगाते। ग्रीष्म की गर्मी के पूर्व के तैयार शारदीय अन्नों को उन्हीं पर्वतीय रास्तों से ले भागते जिनसे वे आए थे।
जहाँ हिमालय पर्वत ने, उनकी अनुलंघता के फलस्वरूप अपनी सुरक्षा का भ्रम भारतीयों में पैदा किया वहीं गंगा-सिंधु के मैदान ने उन्हें प्रायः 70,000 वर्गमील क्षेत्र का यह भू-भाग विश्व के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में एक है। एक-दूसरे के समीप बसे महानगर, नगर और ग्राम इसे अच्छादित किए हुए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, बिहार, झारखंड तथा पश्चिमी बंगाल के राज्यों की आबादी का घनत्व संयुक्त राज्य अमेरिका के घनत्व से प्रायः छह गुना है। जब मानसून धोखा दे देता है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा के जिले, राज्य रेगिस्तानी भू-भाग की तरह, अपनी करोड़ों की आबादी को भोजन देने में असमर्थ हो जाते हैं।
तीसरा बड़ा पृथक् भाग दक्षिणी पठार है। यह एक बड़े त्रिभुज के आकार का है। दोनों किनारों पर खड़े कम ऊँचे पर्वत सागर-तक विस्तृत हैं जबकि विंध्याचल और सतपुरा की पर्वत-श्रृंखलाएँ तथा नर्माद और ताप्ती नदियाँ इसे उत्तरी भारत से काट देती हैं। यद्यपि इस क्षेत्र की भौगोलिक एकरूपता प्राप्त है पर इसके निवासी दो विभिन्न जातीय वर्गों के हैं। उत्तरी भाग जो अपने को ‘डेकनी’ कहता है परस्पर-सम्बद्ध भाषाएँ बोलता है।
भारत के तीन प्रमुख भू-भाग हैं—हिमालय-पर्वत-श्रृंखला, गंगा-सिंध-मैदान तथा दक्षिणी पठार। उत्तर-पश्चिम की पर्वत-श्रृंखलाएँ उधर की सीमाओं का मिर्माण करती हुईं, पाकिस्तान के निर्माण के पूर्व इस उपमहाद्वीप को एक भौगोलिक एकता प्रदान करती थीं। इन पर्वतों का महत्त्व उनकी अभेद्यता में था।
ये पर्वत संसार में सर्वोच्च हैं—माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई 29,028 फीट है। इनमें अधिकांश वर्ष-पर्यंत बर्फ से ढके रहते हैं। हिमालय का अर्थ ही है हिम (बर्फ) का घर (आलय)। गगनचुँबी ऊँचाइयों तथा सदा उपलब्ध बर्फ से अधिक ऐतिहासिक महत्त्व उन दर्रों का था जो हिमालय को पार करने योग्य बनाते थे किसी बाँध के खुले फाटकों की तरह, उन जातियों को अनवरुद्ध मार्ग प्रदान करते थे जो इस पर्वत के उस पार रहती थीं।
बोलान, खुर्रम तथा ख़ैबर के दर्रे उत्तर-पश्चिम में हैं; ऐसे और कई हैं जो भारत को तिब्बत से जोड़ते हैं। ये दर्रे घुमक्कड़ों और गड़ेरियों को ज्ञात थे जो अपनी भेड़-बकरियों के झुंडों को घाटियों में चराते थे, उन व्यापारियों को ज्ञात थे जो अपनी व्यावसायिक वस्तुओं को झुंडों में, उनकी राह लाते थे और निस्संदेह उन आक्रामकों को ज्ञात थे जो इनका उपयोग भारत के समृद्ध मैदानी भागों पर आक्रमण और लूट के लिए करते थे।
भारत का इतिहास इन हिमालयी दर्रों के द्वारा आक्रमणों की उबाऊ और त्रासद पुनरावृत्ति का इतिहास है। आक्रमणों का समय जैसे पूर्णतया तिथि-सूचकों (कैलेंडरों) से निर्धारित था। आक्रामक पतझड़ के ठीक पूर्व अपनी सेनाओं को एकत्रित करते, हिमयान के पूर्व दर्रों को पार कर जाते तथा जाड़े के आरम्भ में जब आसमान नीला रहता, और हवा; अलसी, हरे गेहूं और ईख की गंध से सुगंधित और शीतल रहती।
ये भारतीय मैदानी इलाकों पर टूट पड़ते। आक्रामकों और भारतीयों के बीच अधिकांश लड़ाइयाँ पंजाब में लड़ी गईं और आक्रामक अगर विजयी सिद्ध होते, जो वे अक्सर होते ही थे, तो वे जाड़े के महीनों को लाहौर, करनाल, पानीपत, दिल्ली, मथुरा और आगरा आदि नगरों की सुनियोजित लूट में लगाते। ग्रीष्म की गर्मी के पूर्व के तैयार शारदीय अन्नों को उन्हीं पर्वतीय रास्तों से ले भागते जिनसे वे आए थे।
जहाँ हिमालय पर्वत ने, उनकी अनुलंघता के फलस्वरूप अपनी सुरक्षा का भ्रम भारतीयों में पैदा किया वहीं गंगा-सिंधु के मैदान ने उन्हें प्रायः 70,000 वर्गमील क्षेत्र का यह भू-भाग विश्व के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में एक है। एक-दूसरे के समीप बसे महानगर, नगर और ग्राम इसे अच्छादित किए हुए हैं। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, बिहार, झारखंड तथा पश्चिमी बंगाल के राज्यों की आबादी का घनत्व संयुक्त राज्य अमेरिका के घनत्व से प्रायः छह गुना है। जब मानसून धोखा दे देता है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा के जिले, राज्य रेगिस्तानी भू-भाग की तरह, अपनी करोड़ों की आबादी को भोजन देने में असमर्थ हो जाते हैं।
तीसरा बड़ा पृथक् भाग दक्षिणी पठार है। यह एक बड़े त्रिभुज के आकार का है। दोनों किनारों पर खड़े कम ऊँचे पर्वत सागर-तक विस्तृत हैं जबकि विंध्याचल और सतपुरा की पर्वत-श्रृंखलाएँ तथा नर्माद और ताप्ती नदियाँ इसे उत्तरी भारत से काट देती हैं। यद्यपि इस क्षेत्र की भौगोलिक एकरूपता प्राप्त है पर इसके निवासी दो विभिन्न जातीय वर्गों के हैं। उत्तरी भाग जो अपने को ‘डेकनी’ कहता है परस्पर-सम्बद्ध भाषाएँ बोलता है।
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